Monday, 25 August 2008

आज़ादी की एक और वर्षगांठ

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी गली गली में बजते देखे आज़ादी के गीत रे जगह जगह झंडे फहराते यही पर्व की रीत रे सभी मनाते पर्व देश का आज़ादी की वर्षगांठ है वक्त है बीता धीरे धीरे साल एक और साठ है बहे पवन परचम फहराता याद जिलाता जीत रे गली गली में बजते देखे आज़ादी के गीत रे जगह जगह झंडे फहराते यही पर्व की रीत रे जनता सोचे किंतु आज भी क्या वाकई आजाद हैं भूले मानस को दिलवाते नेता इसकी याद हैं मंहगाई की मारी जनता भूल गई ये जीत रे गली गली में बजते देखे आज़ादी के गीत रे जगह जगह झंडे फहराते यही पर्व की रीत रे हमने पाई थी आज़ादी लौट गए अँगरेज़ हैं किंतु पीडा बंटवारे की दिल में अब भी तेज़ है भाई हमारा हुआ पड़ोसी भूले सारी प्रीत रे गली गली में बजते देखे आज़ादी के गीत रे जगह जगह झंडे फहराते यही पर्व की रीत रे ===प्रदीप मानोरिया

9 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत बढिया.लिखते रहें.

कृपा वर्ड वेरिफिकेशन हटा लेवे.. टिप्पणी देने में सुविधा होगी.

शोभा said...

बहुत अच्छा लिखा है. सस्नेह

Vinay said...

आपने सचमुच देश के प्रति सच्चा प्रेम दर्शाया है!

कुन्दन कुमार मल्लिक said...

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं,
वह हृदय नहीं बस पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
सुन्दर प्रस्तुति। सादर- कुन्दन कुमार मल्लिक
"काव्य पल्लव"

padma rai said...

चिट्ठा जगत में आपका स्वागत है. लिखते रहें.

mast maula said...

bahut badia,
janta ki peeda aapne likhi
likte rahiye

राजेंद्र माहेश्वरी said...

नहीं संगठित सज्जन लोग । रहे इसी से संकट भोग ॥

Amit K Sagar said...

बहुत अच्छी रचना. शुक्रिया.

amit said...

गीत के रूप में आपने पर्व को मनाते हुए यथार्थ से भी परिचित करा दिया
हमने पाई थी आज़ादी लौट गए अँगरेज़ हैं
किंतु पीडा बंटवारे की दिल में अब भी तेज़ है
भाई हमारा हुआ पड़ोसी भूले सारी प्रीत रे
गली गली में बजते देखे आज़ादी के गीत रे
जगह जगह झंडे फहराते यही पर्व की रीत रे