Sunday 24 August, 2008

साहित्यकार की कलम

संवेदनशीलता का उत्प्रेरक जब सक्रिय हो जाता है रचनाकार अपनी कलम उठाता है ह्र्दय की संवेदनाये दिमाग की मशीन से कागज पर उतर आती हैं यही क्रिया अभिव्यक्ति का नाम पाती है आमबोलचाल की भाषा में इसका नाम है भडास खैर अभी तो सामने खडा है एक सवाल क्या रचनाकार की संवेदनशीलता कागज पर आकर रूक जाना है अथवा इसे कुछ रचनात्मक व्यवहार तक भी जाना है ईस संबंध में मैं अपने अभिमत से आपको अवगत कराऊंगा इतिहास की ओर आपका ध्यान चाहूंगा कबीर की कलम ने समाज का पाखण्ड मिटाया है सूर और मीरा ने भाव भक्ति का जगाया है प्रेमचन्द की लेखनी ने विसंगतियां मिटाई हैं अनेक लेखनियों ने हमें आजादी दिलाई है साहित्यकार तो कलम ही चलाता है वह कोई तलवार नहीं उठाता है भाषा का प्रतिनिधि जनप्रतिनिधि बनने सामने नहीं आता है लेखनी के बल पर ही उसका लेखन समाज का दर्पण कहलाता है इशारा ही काफी समझदार के लिये लिख देना ही काफी है रचनाकार के लिये देश में अनेक साहित्यकारों का विकास में खासा योगदान है उनकी रचना के इशारों पर हुआ देश का उत्थान है लेकिन अब सारा लेखन और इशारे अर्थहीन लगते हैं अब शासक व प्रशासक शतप्रतिशत स्वार्थ में यकीन रखते हैं उनकी संवेदनायें अब दम तोड गई हैं दर्द को समझने की क्षमता साथ छोड गई है अब रचनाओं के क्या शेष रह गये हैं मायने हालात ऐसे हैं जैसे बंदर के हाथ में आयने यदि व्यवस्था मे दिखता आपको कोई दोष है अथवा विसंगतियों के प्रति आपको कोई रोष है तो जरूरत नहीं है हमें व्यवस्था में जुड जाने की जरूरत है व्यवस्थापकों में संवेदनशीलता जगाने की === प्रदीप मानोरिया

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