Saturday 30 August, 2008

साहित्यकार की कलम

सुधी पाठकों के ध्यानाकर्षण के निमित्त पुन: पोस्ट की जा रही है

संवेदनशीलता का उत्प्रेरक जब सक्रिय हो जाता है

रचनाकार अपनी कलम उठाता है

ह्र्दय की संवेदनाये दिमाग की मशीन से कागज पर उतर आती हैं

यही क्रिया अभिव्यक्ति का नाम पाती है

आमबोलचाल की भाषा में इसका नाम है भडास

खैर अभी तो सामने खडा है एक सवाल

क्या रचनाकार की संवेदनशीलता कागज पर आकर रूक जाना है

अथवा इसे कुछ रचनात्मक व्यवहार तक भी जाना है

ईस संबंध में मैं अपने अभिमत से आपको अवगत कराऊंगा

इतिहास की ओर आपका ध्यान चाहूंगा

कबीर की कलम ने समाज का पाखण्ड मिटाया है

सूर और मीरा ने भाव भक्ति का जगाया है

प्रेमचन्द की लेखनी ने विसंगतियां मिटाई

हैं अनेक लेखनियों ने हमें आजादी दिलाई

है साहित्यकार तो कलम ही चलाता है

वह कोई तलवार नहीं उठाता है

भाषा का प्रतिनिधि जनप्रतिनिधि बनने सामने नहीं आता है

लेखनी के बल पर ही उसका लेखन समाज का दर्पण कहलाता है

इशारा ही काफी समझदार के लिये

लिख देना ही काफी है रचनाकार के लिये

देश में अनेक साहित्यकारों का विकास में खासा योगदान है

उनकी रचना के इशारों पर हुआ देश का उत्थान है

लेकिन अब सारा लेखन और इशारे अर्थहीन लगते हैं

अब शासक व प्रशासक शतप्रतिशत स्वार्थ में यकीन रखते हैं

उनकी संवेदनायें अब दम तोड गई हैं

दर्द को समझने की क्षमता साथ छोड गई है

अब रचनाओं के क्या शेष रह गये हैं मायने

हालात ऐसे हैं जैसे बंदर के हाथ में आयने

यदि व्यवस्था मे दिखता आपको कोई दोष है

अथवा विसंगतियों के प्रति आपको कोई रोष है

तो जरूरत नहीं है हमें व्यवस्था में जुड जाने की

जरूरत है व्यवस्थापकों में संवेदनशीलता जगाने की

=== प्रदीप मानोरिया

11 comments:

महेन्द्र मिश्र said...

bahut badhiya rachana. thanks. manoriya ji.

शोभा said...

यदि व्यवस्था मे दिखता आपको कोई दोष है

अथवा विसंगतियों के प्रति आपको कोई रोष है

तो जरूरत नहीं है हमें व्यवस्था में जुड जाने की

जरूरत है व्यवस्थापकों में संवेदनशीलता जगाने की
बहुत सही बात को काव्य रूप में प्रस्तुत किया है। बधाई स्वीकारें।

मधुकर राजपूत said...

व्यवस्था पर कटाक्ष, संबेदनाओं का आह्वान, रचनाकार की गरिमा सब कोइतने हल्के लहजे में आपने पिरो दिया कि हिंदी न जानने वाले आज की पीढ़ी के कुछ युवा भी इसे समझ जाएं। उत्तम।

योगेन्द्र मौदगिल said...

वाह..... अच्छी रचना के लिये बधाई..

अनुनाद सिंह said...

आपकी यह रचना बहुत अच्छी लगी।

Harshit Gupta said...

aapke vichar se sehmat hoon.
vicharotejak rachna.
badhai.

seema gupta said...

तो जरूरत नहीं है हमें व्यवस्था में जुड जाने की

जरूरत है व्यवस्थापकों में संवेदनशीलता जगाने की
" very well said, a good message throuhg this precious words"

Regards

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

कवियो के लिए
अपनी कलम को हथियार बना

शब्दों में बारूद भरे

सोया समाज राख समान

उसमे कुछ आग लगे

ज्योती को भड़का कर

क्रांती जवाला प्रजवलित करे

कवियो तुम समाज सुधारक

नहीं तुम विदूषक निरे

समय आ गया संघर्षो का

आओ तुम नेतृत्व करो

हास्य -परिहास श्रृंगार को

कुछ दिन को विश्राम दो

लोकतेंत्र के तीनो स्तम्भ

अपने आप ही हिल रहे

अनजाने भय के कारण


समाज भी है डरे हुऐ
सुबिधाओ की बहुतायत में
गुलामी की ओर बहे
रोकना होगा इस धारा को
डट के चट्टानों की तरह

yah kavita hai mera vichaar DHEERU SINGH

Purnima said...

waikai sir
aapne bahut acchi kavita likhi hai
thoughts bahut sahi hain aur bahut khubsurati se unhe shabdon mei buna gaya hai

thank u for such a wonderful poem
:)

amit said...

यदि व्यवस्था मे दिखता आपको कोई दोष है

अथवा विसंगतियों के प्रति आपको कोई रोष है

तो जरूरत नहीं है हमें व्यवस्था में जुड जाने की

जरूरत है व्यवस्थापकों में संवेदनशीलता जगाने की
ठेठ साहित्यक रचना है किंतु बहुत सत्य

Anonymous said...

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