Saturday, 1 November 2008

सम्पूर्ण देश की एक हवा है -- प्रदीप मानोरिया

  • म न से तेरी मंशा का क्या तुझको अनुमान नहीं |
  • खेल ये खूनी कब तक होगा क्या इसका भी भान नहीं ||
  • मुम्बई की भू माँ आँचल सी , सबको इसकी छाँव मिले | 
  • किंतु यू बी आर अरे तुम क्यों बेढंगी चाल चले ||  
  • गुजराती या उत्तर का या फ़िर कन्नड़ वासी है |
  • सब मिलजुल कर प्रेम से रहते सब ही भारतवासी है || 
  • भारत माँ के हर हिस्से में सबको मिलता प्यार हो | 
  • किंतु पवन देश की जो है बनते क्यों ठेकेदार हो || 
  • एक रसोई में है सम्भव सभी प्रेम से खाते हैं | 
  • कोई दाल सब्जी को खाता किसी को चावल भाते हैं || 
  • सभी अमन से रहें कहीं भी सबके मन में प्यार रहे |
  • अपना अपना लोटा छाने सबको पानी की धार मिले || 
  • मुम्बई का आँचल अनादि से प्यार बांटता आया है | 
  • इस आँचल को मत फाडो तुम जिसकी सब पर छाया है || 
  • पहेली :- यू बी आर = ?

16 comments:

Smart Indian said...

सभी अमन से रहें कहीं भी सबके मन में प्यार रहे |
अपना अपना लोटा छाने सबको पानी की धार मिले ||
काश ऐसा ही हो!

प्रवीण त्रिवेदी said...

बढ़िया है , शिक्षाप्रद है , पर जब उनको समझ में आयें ये बातें!

Anil Pusadkar said...

आज के लिये ज़रुरी बात कही है आपने।बधाई आपको।

Unknown said...

देश के धब्बे को उजागर भी किया मुमबी की दर्दनाक स्तिथि को बयान किया है और अमन की बात भी कही है

amit said...

वाह प्रदीप जी आपने तो उद्धव राज एवं बाल के बाल नोच लिए बहुत ही सरल एवं प्रभावशील तरीके से वस्तुस्थिथी बयान की है धन्यवाद आपको अमित

अमिताभ भूषण"अनहद" said...

मुम्बई की भू माँ आँचल सी , सबको इसकी छाँव मिले |
किंतु यू बी आर अरे तुम क्यों बेढंगी चाल चले ,
क्या बात है भाई साहब बुत खूब .आग है आप की लेखनी में

दिगम्बर नासवा said...

वाह प्रदीप जी
बिल्कुल सही बात कही आपने

अगर हम हिन्दुस्तानी ये समझ जायें
तो क्यों न अपना गोरव पुनः पायें

राज भाटिय़ा said...

अति सुन्दर धन्यवद

योगेन्द्र मौदगिल said...

अच्छी कविता है भाई मानोरिया जी
साधुवाद

Jayshree varma said...

आप की लेखनी कमाल है . सलाम

Udan Tashtari said...

वाह!! क्या लिखते हो भाई!!

आनन्द आ जाता है. बधाई.

अतुल कुमार सिंह "अक्स" said...

अति उत्तम रचनाएँ हैं ! मैं बहुत ही खुश हूँ की मुझे आप जैसा दोस्त मिला है !!!!!!!!

Anonymous said...

एक रसोई में है सम्भव सभी प्रेम से खाते हैं |
कोई दाल सब्जी को खाता किसी को चावल भाते हैं ||

सभी अमन से रहें कहीं भी सबके मन में प्यार रहे |
अपना अपना लोटा छाने सबको पानी की धार मिले ||
bahut sahi aur sach kaha kaash aisa ho bahut suhndar

seema gupta said...

सभी अमन से रहें कहीं भी सबके मन में प्यार रहे |
अपना अपना लोटा छाने सबको पानी की धार मिले ||
" bhut sunder veechar"

Regards

Jayshree varma said...

म न से की मंशा तो सफल होती दिख रही है गुरुजी..... औरों को छांव मिले या धूप इन्हें तो बस वोटों का बंडल मिले.... इनके लिए यही सब कुछ है.... ऐसे देशद्रोही के लिए तो मैंने सारी डिक्शनरियां देख ली लेकिन मेरे पास कोई शब्द ही नहीं है.... यह तेरा है ना मेरा है.... ये धरती सबकी मैया है लेकिन इन वोटों के ठेकेदारों को कौन समझाये भला? ..... जय हिंद

Premil said...

आपकी रचना का सामयिक तत्त्व अत्यन्त मनोहारी रूप से सामने आया है. कृपया मेरे ब्लॉग पर लिखी नई रचना भी देखें : http://hindirachnayein.blogspot.com/