
राजतंत्र को हटा प्रजा का लोकतंत्र ले आए |
प्रगति स्वप्न को भूल ,मंत्र बापू नेहरू के भुलाए ||
समय चक्र के चलते साल हैं साथ बिताये |
किंतु नहीं आकलन इसका पहुँच कहाँ हम पाये ||
भ्रष्टाचार का भूत बहुत नेताओं पर मंडराए |
बहुत हैं अफसर बाबू चपरासी वे भी नहीं बच पाये ||
नेता सत्ता का ऐसा प्रेमी दिन भर स्वप्न सजाये |
करे नोट वोटों की तिजारत ,देश भाड़ में जाए ||
अफसर देश चलाते हैं पर नोट देख ललचायें |
निष्ठा खूंटी पर टांग अरे ये किंचित न शर्मायें ||
लोकतंत्र का चढ़ा मुखौटा लालफीत ही चलायें |
सेवा,पूजा,घूस-ओ-रिश्वत जनता रोज चढाये ||
सरकार हुयी स्वचालित हमारी चालक सोता जाए |
देश की जनता करे सवारी पल पल झटके खाए ||
प्रदीप मानोरिया
संपर्क 094 25132060
17 comments:
बहुत सुंदर लाज़बाब पूरा खाका ही खींच दिया आपने
हर बार की तरह बहुत बढिया आपकी व्यंग की धर और पैनी होती जा रही है
वाह प्रदीप जी बहुत मजेदार
आपके व्यंग और आपकी सोच कहाँ तक जाती है और फ़िर उसको शब्द शिल्प मैं पिरो लेना भाई गज़ब है
"राजतंत्र को हटा प्रजा का लोकतंत्र ले आए"
कहाँ हटा राजतंत्र?
कहाँ आया लोकतंत्र?
चौथी पीढ़ी करेगी अब राज.
"प्रगति स्वप्न को भूल, मंत्र बापू नेहरू के भुलाए"
बापू के स्वप्न तो नेहरू ने ही भुलाए.
bahut accha vyang aap ki lekhai jabardast he
regards
बहुत ही सटीक व्यंग किया है आप ने , बिलकुल सच
धन्यवाद
अफसर देश चलाते हैं पर नोट देख ललचायें |
निष्ठा खूंटी पर टांग अरे ये किंचित न शर्मायें ||
प्रदीप जी
आप जब लिखेंगे तो व्यंग की धार तेज ही होगी
सुंदर रचना, साधुवाद
अपने ब्लॉग पर आपकी टिपण्णी पढ़ते पढ़ते यहाँ तक आ पहुची. आपकी रचनाये पढ़के लगा आप आम इंसान के मर्म को अच्छी तरह महसूस करते हैं.वर्तमान लोकतंत्र की विडम्बना यही है की सब कुछ की शुरुआत एकदम आदर्श की तरह हुई पर धीरे धीरे वो जनता से ही दूर होता जा रहा है.
देश के मौजूदा हालात को बडे प्रभावशाली तरीके से अिभव्यक्त िकया है आपने ।
http://www.ashokvichar.blogspot.com
लोकतंत्र का चढ़ा मुखौटा लालफीत ही चलायें |
सेवा,पूजा,घूस-ओ-रिश्वत जनता रोज चढाये ||
bahut ache lafazon me desh ki mauda haalat ko samne laye ho aapne kavita ke madhyam se
bhadhai
आज ही आपकी पिछली तीनों रचनायें पढीं, मजा आया. बहुत खूब
बहुत सही वर्णन किया है आप ने--चित्र भी एक दम फिट बैठता है आज कल के हालात पर--यही लोकतंत्र की हालत है--बहुत ही सही कटाक्ष किया है-
अच्छी प्रस्तुति.
मनोरिया जी -चालक विहीन विकास है ये जनता सवार है /अब तो आलम ये है कि बाज़ार में भटके होते तो कोई अपने घर पहुंचा जाता ,हम अपने घर में भटके हैं क्या ठौर ठिकाने जायेंगे करोडो के नोट उछाले जा रहे हों विदेशों में खाते खुल रहे हों वहां इन वेचारे दो दो पाँच पाँच रूपये वाले चपरासियों को कहाँ शामिल कर लिए आपने /वैसे ठीक भी है बेईमानी चाहे हाथी कि हो या चींटी की बेईमानी तो है ही
अफसर देश चलाते हैं पर नोट देख ललचायें |
आप की ली हुई चुटीली चुटकी बिल्कुल सच बया करती है /
हर दिल की बात है ये ,दिल से लिखी हुई लगती है /
आप हमारे नाचीज ब्लॉग पर आए हमे बहुत खुशी हुई ,
आशा है आप ये खुशी हमे बार बार देते रहेगे
लोकतंत्र का चढ़ा मुखौटा लालफीत ही चलायें |
सेवा,पूजा,घूस-ओ-रिश्वत जनता रोज चढाये ||
प्रदीप जी बहुत ही बढ़िया कटाक्ष है
Aapko mere blogpe aaneka aamantran dene aayee hun..mumbaike bam dhamakonse behad vyathit ho maine ye lekh likha hai"Meree aawaaz Suno"...aapka intezaar hai...
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