
मज़हब वतन में कोई मोहब्बत से बडा नहीं है
इश्क इंसानी से बढकर इबादत कोई नहीं है
सियासत के ठेकेदार लडाते मज़हब के नाम पर
है इश्क अगर दिल में बस बात ये सही है
क्या फ़ैसला जमीं ये है राम या अल्ला की
दिल को मिला ले उससे जिससे तेरी लगी है
बंदा तू राम का या अल्ला का बन्दा तू है
सांसे है वही तेरी लहू भी तेरा वही है
=प्रदीप मानोरिया
3 comments:
सामने वाले समझेंगे...???
प्रदीप मानोरि्या जी
अच्छी रचना है …
मज़हब वतन में कोई मोहब्बत से बडा नहीं है
साहब , वतन में क्या संसार में मोहब्बत से बड़ा मज़हब नहीं !
मैं कहता हूं -
मज़हब तो देता नहीं , नफ़रत का पैग़ाम !
शैतां आदम - भेष में करता है यह काम !!
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
बढ़िया सामयिक अभिव्यक्ति के लिए शुभकामनायें मानोरिया भाई !
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