आशाओं से भरी निगाहें , मन कितना मजबूर है |
तन जर्जर सामर्थ्य नहीं है , दुःख ही दुःख का पूर है ||
सर्द रात तन रहे ठिठुरता , यह दरिद्र संजोग है |
हाथ में चिंदी असमंजस है , क्या इसका उपयोग है ||
चेहरे पर झुर्री का जाला , निर्धनता का नूर है .......
आशाओं से भरी निगाहें , मन कितना मजबूर है |
तीन पहर तो बीत चुके हैं ,आई जीवन की सांझ है |
इनके लिए तो सुख की जननी , रही सदा ही बाँझ है ||
सुर सरगम मर्सिया हैं गाते , सुख खट्टे अंगूर है ........
आशाओं से भरी निगाहें , मन कितना मजबूर है |
शिशिर बसंत हेमंत शरद , ऋतू सब ही आनी जानी |
अर्ध वस्त्र और भोजन आधा, जीवन की है यही कहानी ||
फ़िर भी जीवन जीते जाते , ईर्ष्या से रह दूर है ...........
आशाओं से भरी निगाहें , मन कितना मजबूर है |
दूर ये नज़रें देख रही हैं, सुख की कुछ परछाईं हो |
भाग्य विधाता को भी शायद याद हमारी आई हो ||
दुःख भोगें और सपने देखें इसमे नही कुसूर है ....
आशाओं से भरी निगाहें , मन कितना मजबूर है |
तन जर्जर सामर्थ्य नहीं है , दुःख ही दुःख का पूर है ||
प्रदीप मानोरिया अशोकनगर (MP) संपर्क 094 251 32060
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