Thursday, 13 August 2009

swantrata diwas =pradeep manoria

गली गली में बजते देखे आज़ादी के गीत रे
जगह जगह झंडे फहराते यही पर्व की रीत रे
सभी मनाते पर्व देश का आज़ादी की वर्षगांठ है
वक्त है बीता धीरे धीरे साल द्वय और साठ है
बहे पवन परचम फहराता याद जिलाता जीत रे
गली गली में बजते देखे आज़ादी के गीत रे
जगह जगह झंडे फहराते यही पर्व की रीत रे
जनता सोचे किंतु आज भी क्या वाकई आजाद हैं
भूले मानस को दिलवाते नेता इसकी याद हैं
मंहगाई की मारी जनता भूल गई ये जीत रे
गली गली में बजते देखे आज़ादी के गीत रे
जगह जगह झंडे फहराते यही पर्व की रीत रे
हमने पाई थी आज़ादी लौट गए अँगरेज़ हैं
किंतु पीडा बंटवारे की दिल में अब भी तेज़ है
भाई हमारा हुआ पड़ोसी भूले सारी प्रीत रे
गली गली में बजते देखे आज़ादी के गीत रे
जगह जगह झंडे फहराते यही पर्व की रीत रे
===प्रदीप मानोरिया
०९४२५१३२०६०

11 comments:

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर कविता लिखा आपने .. आजादी दिखती नहीं किसी भी क्षेत्र में हमें .. फिर भी जन्‍माष्‍टमी और स्‍वतंत्रता दिवस की आपको बहुत बहुत बधाई !!

जितेन्द़ भगत said...

जब मन में वि‍रोधी स्‍थि‍ति‍यॉं उपजती हैं तभी सच्‍ची अभि‍व्‍यक्‍ति‍ होती है-
हमने पाई थी आज़ादी लौट गए अँगरेज़ हैं
किंतु पीडा बंटवारे की दिल में अब भी तेज़ है

विनोद कुमार पांडेय said...

बेहतरीन कविता लिखी आपने..
हर पंक्ति सुंदर भाव लिए हुए है..
आज का दौर,भारत और आज़ादी सब का सुंदर मिलाप...

धन्यवाद प्रदीप जी
स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक बधाई!!!

Smart Indian said...

हमने पाई थी आज़ादी लौट गए अँगरेज़ हैं
किंतु पीडा बंटवारे की दिल में अब भी तेज़ है
भाई हमारा हुआ पड़ोसी भूले सारी प्रीत रे
गली गली में बजते देखे आज़ादी के गीत रे

बहुत सुंदर, बधाई!

Vinay said...

श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ। जय श्री कृष्ण!!
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INDIAN DEITIES

दिगम्बर नासवा said...

vaah pradeep जी......... kahaa gum हैं इतने दिनों से............ bahoot ही vyangaatmak रचना है आपकी...... mazaa aa गया..... आपका andaaz barkaraar है..........

hem pandey said...

'मंहगाई की मारी जनता भूल गई ये जीत रे'
इसी कारण -
'जनता सोचे किंतु आज भी क्या वाकई आजाद हैं'

विधुल्लता said...

भाई हमारा हुआ पड़ोसी भूले सारी प्रीत.. बहुत बधाई,स्‍वतंत्रता दिवस की

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

सबको पीड़ा है!

मुकेश कुमार तिवारी said...

प्रदीप जी,

पीड़ा से झकझोरती हुई रचना के लिये साधुवाद।

जनता सोचे किंतु आज भी क्या वाकई आजाद हैं भूले मानस को दिलवाते नेता इसकी याद हैं
मंहगाई की मारी जनता भूल गई ये जीत रे

सादर,


मुकेश कुमार तिवारी

Mumukshh Ki Rachanain said...

वास्तविकता से अवगत कराती आपकी यह कविता विशेष महत्त्व रखती है.
हार्दिक आभार.