गली गली में बजते देखे आज़ादी के गीत रे
जगह जगह झंडे फहराते यही पर्व की रीत रे
सभी मनाते पर्व देश का आज़ादी की वर्षगांठ है
वक्त है बीता धीरे धीरे साल द्वय और साठ है
बहे पवन परचम फहराता याद जिलाता जीत रे
गली गली में बजते देखे आज़ादी के गीत रे
जगह जगह झंडे फहराते यही पर्व की रीत रे
जनता सोचे किंतु आज भी क्या वाकई आजाद हैं
भूले मानस को दिलवाते नेता इसकी याद हैं
मंहगाई की मारी जनता भूल गई ये जीत रे
गली गली में बजते देखे आज़ादी के गीत रे
जगह जगह झंडे फहराते यही पर्व की रीत रे
हमने पाई थी आज़ादी लौट गए अँगरेज़ हैं
किंतु पीडा बंटवारे की दिल में अब भी तेज़ है
भाई हमारा हुआ पड़ोसी भूले सारी प्रीत रे
गली गली में बजते देखे आज़ादी के गीत रे
जगह जगह झंडे फहराते यही पर्व की रीत रे
===प्रदीप मानोरिया
०९४२५१३२०६०
11 comments:
बहुत सुंदर कविता लिखा आपने .. आजादी दिखती नहीं किसी भी क्षेत्र में हमें .. फिर भी जन्माष्टमी और स्वतंत्रता दिवस की आपको बहुत बहुत बधाई !!
जब मन में विरोधी स्थितियॉं उपजती हैं तभी सच्ची अभिव्यक्ति होती है-
हमने पाई थी आज़ादी लौट गए अँगरेज़ हैं
किंतु पीडा बंटवारे की दिल में अब भी तेज़ है
बेहतरीन कविता लिखी आपने..
हर पंक्ति सुंदर भाव लिए हुए है..
आज का दौर,भारत और आज़ादी सब का सुंदर मिलाप...
धन्यवाद प्रदीप जी
स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक बधाई!!!
हमने पाई थी आज़ादी लौट गए अँगरेज़ हैं
किंतु पीडा बंटवारे की दिल में अब भी तेज़ है
भाई हमारा हुआ पड़ोसी भूले सारी प्रीत रे
गली गली में बजते देखे आज़ादी के गीत रे
बहुत सुंदर, बधाई!
श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ। जय श्री कृष्ण!!
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INDIAN DEITIES
vaah pradeep जी......... kahaa gum हैं इतने दिनों से............ bahoot ही vyangaatmak रचना है आपकी...... mazaa aa गया..... आपका andaaz barkaraar है..........
'मंहगाई की मारी जनता भूल गई ये जीत रे'
इसी कारण -
'जनता सोचे किंतु आज भी क्या वाकई आजाद हैं'
भाई हमारा हुआ पड़ोसी भूले सारी प्रीत.. बहुत बधाई,स्वतंत्रता दिवस की
सबको पीड़ा है!
प्रदीप जी,
पीड़ा से झकझोरती हुई रचना के लिये साधुवाद।
जनता सोचे किंतु आज भी क्या वाकई आजाद हैं भूले मानस को दिलवाते नेता इसकी याद हैं
मंहगाई की मारी जनता भूल गई ये जीत रे
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
वास्तविकता से अवगत कराती आपकी यह कविता विशेष महत्त्व रखती है.
हार्दिक आभार.
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