
- बीत रहा जीवन यूँ ही ,
- बस सुख की अभिलाषा |
- सुख है दुख या फ़िर सुख ,
- अनभिज्ञ रहा क्या परिभाषा ||
- तीव्र आकुलित भोक्ता दुःख का ,
- कम आकुलता क्या यह है सुख ?
- जग भर जिसको सुख कहता है ,
- वह सुख है अथवा है दुःख ?
- निर्विचार जीवन जीता है ,
- रत रह व्यर्थ प्रयासों में |
- सुख की कर कर असत कल्पना ,
- खुश है सुख आभासों में ||
- सुख आभासों को सुख कहना ही
- उपचारित जग का व्यवहार |
- किंतु असलियत क्या है इसकी ,
- है आवश्यक तनिक विचार ||
- भोगी वेदना जब ही प्यास की ,
- सुखमय तृप्ति देता पानी |
- भूख वेदना सहने पर ही
- सुस्वादु भोजन सुखदानी ||
- बिस्तर का संयोग सुखद हो ,
- जब थकान से व्यथित हुआ |
- यौन रमण की पीडा बिन तो ,
- यौन रमण न सफल हुआ ||
- पीडा से होकर व्याकुल फ़िर ,
- जो संयोगों को भोग लिया |
- आकुलता की कमी क्षणिक है ,
- उसको ही सुख मान लिया ||
- सुखाभास यह न यथार्थ सुख ,
- पीडा को कम कर देता |
- पहले पीड़ित होकर प्राणी ,
- उसको ही सुख कह लेता ||
- भोगों के साधन पाकर फ़िर ,
- भोगूं भोगूं आकुलता है |
- इसको फ़िर सुख कैसे कह दें ,
- सुख कहना मूरखता है ||
- फलित यही होता है अब जो ,
- इन्द्रिय से भोगे जाते |
- वे सुख न है वे दुःख के साधन ,
- जग में सुख वे कहलाते ||
- जो इन्द्रिय से पार भोगना ,
- निज आतम सुख का सागर |
- पर से नज़र हटा अन्तर में ,
- देख लबालब सुख गागर ||
- नहीं वेदना पीडा कोई ,
- आकुलता का काम नहीं |
- है आनंद अनंत अन्दर में ,
- मात्र निराकुल धाम यही ||
=प्रदीप मानोरिया 09125132060
28 comments:
प्रदीप जी,कविता के भाव बहुत गहरे हैं।लगता है बहुत गहरे डुबकी मारी है।बहुत अच्छी रचना है।बधाई स्वीकारें।
बहुत सटीक कहा है-
# जो इन्द्रिय से पार भोगना ,
# निज आतम सुख का सागर |
# पर से नज़र हटा अन्तर में ,
# देख लबालब सुख गागर ||
बहुत सुन्दर, सही कहा, सुख का पता तभी चलता है जब दुख का पता हो.
आपका निमंत्रण पाकर यहाँ आये तो ऐसी सुन्दर कविता पढ़ने को मिली की बस आनन्द आ गया।
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चाँद, बादल और शाम
सरकारी नौकरियाँ
अच्छा लिखा है आपने
उत्तम रचना है.
सुख को परिभाषित करती..........
सुख की खोज करती सुंदर रचना
गहरे भाव लिए है आप की आज की कविता.
अंधेरे का ज्ञान ही उजाले से है और उजाले की परिभाषा बिना अंधेरे के ज्ञान के कहाँ पूर्ण होती है.
बात समझ में आयी ! अच्छा लगा ! लेकिन अगर यह कहा जाय की सचमुच का कोई सुख नहीं होता तो इससे सहमत होना थोडा मुश्किल हो जायेगा !
सच है की सामान्य तौर पास हम जिसे सुख कहते है वह सुख नहीं सुख का आभास होता है , एक मरीचिका होती है ! दूसरे शब्दों में कहा जाय तो किसी गहरे सुख की ख़बर होती है ! हम इसी आभास को समग्र मान लेते है बस इसलिए की ये सहज ही उपलब्ध है , सहजगम्य है|
sukh aur dukh ko bahut hi sundarata se paribhashit kiya hai aapne.
भोगों के साधन पाकर फ़िर ,भोगूं भोगूं आकुलता है | इसको फ़िर सुख कैसे कह दें , सुख कहना मूरखता है ||
bahut hi sundar lagin ye panktiyan
दुख तो मनुष्य का सहोदर और स्थायी है। सुख अस्थायी। मनुष्य इसीलिए तो सुख के पीछे भागाता रहता है। किन्तु समझदार तो वही जो दुख में सुख खोज ले।
सुन्दर भाव। अच्छी कविता।
प्रदीप जी जीवन को सुखमय बनने के लिए आपकी इस रचना की किसी भी एक पंक्ति का ही अनुसरण काफ़ी है...अद्भुत प्रेरक रचना...वाह...
नीरज
प्रदीप जी,
गहरे शोध की उत्पत्ति नज़र आती है आपकी यह अद्वितीय रचना.
पढ़ कर सुख मिला, संतोष हुआ, क्योंकि शायद आप मेरी तड़प समझ गए होंगें.........
निम्न पंक्तियाँ शायद पूरी रचना का सारांश है ............
पहले पीड़ित होकर प्राणी,
(जो पाए)
उसको ही सुख कह लेता ||
सुंदर रचना प्रस्तुति पर साधुवाद.
चन्द्र मोहन गुप्त
सुख दुःख को अच्छा परिभाषित किया ही आपने ! सृजन जारी रहे !
बहुत सुन्दर रचना....
पहले पीड़ित होकर प्राणी,
(जो पाए)
उसको ही सुख कह लेता ||
बहुत सटीक कहा है....!!
ज़िन्दगी के मूल्यों से परिचित कराती रचना
प्रदीप जी,
आपने हमे सुख भोगने का निमंत्रण दिया और सुख-सागर ने चिंतन सागर की डुबकी दे दी। बहुत ही उत्तम भावः...
जो इन्द्रिय से पार भोगना ,
निज आतम सुख का
पर से नज़र हटा अन्तर में
देख लबालब सुख गागर ||
... बहुत प्रभावशाली व प्रसंशनीय रचना है साथ ही चित्र तो "सोने-पे-सुहागा" है।
accha likha hai aapne...
kavita ki har pankti ko bullet points me na likhein to padhne me suvidha hogi. aise likhne se har pankti alag lagti hai.
Gahri baat kahi hai aapne..
प सक्षम है मेरी बहुत बहुत बधाई ,फ़िर आपकी टिप्पणी ग़ज़ब ही है .मानना ही पड़ता है हरबार आपकी कलम का जादू
भूपेन्द्र
PRADEEPJEE,
DHANYAVAD PADHARNE KA MERE BLOG PE . GAMBHEER LEKHAN MIL RAHA HAI.AUR CHAHUN OR PRAKASHIT KARNE WALA.
PAHLE AAPKO SAMPOORNATA SE JAN TO LOON ? PADHE JA RAHA HOON .
भावनाओं में बह चलने को विविश करती कविता. सुन्दर. आभार.
सुन्दर कविता है.
समयचक्र: मेरा प्यारा अपना गाँव
सुख दुःख की परिभाषा यदि व्यक्ति समझ जाये तो बहुत सारी समस्याओं का समाधान हो जाये
बहुत सुन्दर भाव!
जीवन के सत्य से परे हम उलझे रहते हैं सुख और दुःख की परिभाषा में .....पर सुख तो अंतर में ही विद्यमान है ,जहां हम झांकना भी नहीं चाहते ,उलझे रहते हैं इसी भव-सागर में .
आध्यात्म में डूबा आपका काव्य मन के सन्निकट लगा .मेरी शुभकामनाएं............
बेहतरीन !!!!!!!!!!!
छोटे और सरल शब्दों में बड़ी बातें कह जाते हैं आप .
बधाई.
जो इन्द्रिय से पार भोगना ,
निज आतम सुख का सागर |
पर से नज़र हटा अन्तर में ,
देख लबालब सुख गागर ||
आध्यात्म का सार यही है। अपने भीतर देखो। जिस इश्वर की खोज में हम जीवन भर भटकते हैं वो हमारे भीतर ही है। वही सुख है,
वही सुख का सार है वही सुख का संसार है।
भाई मनोरिया जी क्षमा करें काफी दिनों आपका ब्लॉग देख नहीं पाया, ये मेरा दुर्भाग्य है कि इतने दिनों तक आपकी रचनाओं से वंचित रहा। आपकी रचनाओ में नुझे एक बहाव और आकर्षण नज़र आता है और मैं जब भी आपकी रचनाएं पढ़ता हूँ तो एक अजींब से मोहपाश में फंस जाता हूँ और एक ऐसे बहाव में बह जाता हूँ जहाँ आनंद ही आनंद होता है। खूबसूरत रचना के लिए बहुत-बहुत बधाई।
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