Saturday, 10 January 2009

बूढी आशा

आशाओं से भरी निगाहें , मन कितना मजबूर है |
तन जर्जर सामर्थ्य नहीं है , दुःख ही दुःख का पूर है ||
सर्द रात तन रहे ठिठुरता , यह दरिद्र संजोग है |
हाथ में चिंदी असमंजस है , क्या इसका उपयोग है ||
चेहरे पर झुर्री का जाला , निर्धनता का नूर है  .......
आशाओं से भरी निगाहें , मन कितना मजबूर है |
तीन पहर तो बीत चुके हैं ,आई जीवन की सांझ है |
इनके लिए तो सुख की जननी , रही सदा ही बाँझ है ||
सुर सरगम मर्सिया हैं गाते , सुख खट्टे अंगूर है ........
आशाओं से भरी निगाहें , मन कितना मजबूर है |
शिशिर बसंत हेमंत शरद , ऋतू सब ही आनी जानी |
अर्ध वस्त्र और भोजन आधा, जीवन की है यही कहानी ||
फ़िर भी जीवन जीते जाते , ईर्ष्या से रह दूर है ...........
आशाओं से भरी निगाहें , मन कितना मजबूर है |
दूर ये नज़रें   देख रही हैं, सुख की कुछ परछाईं हो |
भाग्य  विधाता  को भी शायद याद हमारी आई हो ||
दुःख भोगें  और सपने  देखें इसमे नही कुसूर  है ....
आशाओं से भरी निगाहें , मन कितना मजबूर है |
तन जर्जर सामर्थ्य नहीं है , दुःख ही दुःख का पूर है ||
प्रदीप मानोरिया   अशोकनगर (MP) संपर्क 094 251 32060 
The picture by coutsey of shunya.net  

26 comments:

Smart Indian said...

एक तो बुढापा दूसरे गरीबी - यह तो दोहरी मार है. मगर कविता अच्छी है. [प्रदीप, मुझे जल्दी से अपना डाक का पता ईमेल कर देना]

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप में काव्य सामर्थ्य भरपूर है।

दिगम्बर नासवा said...

दूर ये नज़रें देख रही हैं, सुख की कुछ परछाईं हो
भाग्य विधाता को भी शायद याद हमारी आई हो

प्रदीप जी
बहुत भाव पूर्ण है आपकी यह कविता, दिल का दर्द साफ़ झलकता है आपकी लेखनी में

विवेक सिंह said...

आपकी रचनाओं को गाकर पढने में आनन्द आजाता है ! साधुवाद !

Alpana Verma said...

सर्द रात तन रहे ठिठुरता , यह दरिद्र संजोग है |
हाथ में चिंदी असमंजस है , क्या इसका उपयोग है ||
चेहरे पर झुर्री का जाला , निर्धनता का नूर है
आशाओं से भरी निगाहें , मन कितना मजबूर है |
कविता में भावों की अभिव्यक्ति बहुत ही सुन्दरता से की है.
गरीबी और बुढापे के दर्द को कविता में सरल शब्दों में प्रस्तुती
दिल को छू गयी.
बधाई.

hem pandey said...

मार्मिक वर्णन है. साधुवाद.

राज भाटिय़ा said...

बहुत दर्द छिपा है आप की इस कविता है...लेकिन कुछ भगवान की ओर कुछ इन्सान की देन है.
धन्यवाद

समय चक्र said...

आशाओं से भरी निगाहें,मन कितना मजबूर है |
दूर ये नज़रें देख रही हैं,सुख की कुछ परछाईं हो |

बहुत भाव पूर्ण है.. साधुवाद.

मुकेश कुमार तिवारी said...

प्रदीप जी,

अंतर्मन को छूने वाली मार्मिक काव्य रचना जो कि वृद्धाव्स्था के समस्त दुखद पहलुओं को सामने लाकर सामने खड़ा कर देती है और झकझोरती है.

व्स्तुत: ऐसी रचनाओं के लिये बड़ी ही सूक्ष्म दृष्टी की जरुरत होती है और वह आपके पास है.

धन्यवाद,

मुकेश कुमार तिवारी

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

पीड़ा ऐसी भी हो सकती है, शब्दों के साथ चित्र भी उत्कृष्ट/.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आशाओं से भरी निगाहें , मन कितना मजबूर है |तन जर्जर सामर्थ्य नहीं है , दुःख ही दुःख का पूर है

bahut hi bhavpurn abhivyakti. sundar rachna. doosare ke dard ko mahsoos karane ki kshamta hai. bahut achchha likha hai.
badhai

Dr.Bhawna Kunwar said...

बहुत मार्मिक ...

Aruna Kapoor said...

बुढापे की व्यथा को कविता के माध्यम से चित्रित किया जाना... अपने आप में एक विशिष्ठता है|.. वास्तविक अनुभूति सेरुबरू कराया आपने... धन्यवाद!

Unknown said...

बहुत दर्द छूपा है आपकी इस कविता में!बिल्कुल दिल को छु जाती है!आपका पोस्ट पढने के लिए थोड़ा सा लेट हुआ क्षमा चाहता हूँ!क्योंकि आजकल मै थोड़ा सफर कर रहा हूँ!

जितेन्द़ भगत said...

संवेदनशील कवि‍ता।

महेंद्र मिश्र.... said...

मकर संक्राति पर्व की हार्दिक शुभकामना और बधाई .

Vijay Kumar said...

आपकी लेखनी समर्थ है .बहुत अच्छे

kumar Dheeraj said...

यही जिन्दगी की तल्ख सच्चाई है जिसे कोई कुबूल नही करता है । अच्छा पोस्ट शुक्रिया ।

ज्योत्स्ना पाण्डेय said...

man men samvedana ko janm deti aapki rachanaa ,marmik ban padi hai .

ye aapki drishti ki vyapkataa hai jo aap gareebi aur budhape ki vivashataaon ko dekh pa rahe hain .......

badhai

sandhyagupta said...

तीन पहर तो बीत चुके हैं ,आई जीवन की सांझ है |
इनके लिए तो सुख की जननी , रही सदा ही बाँझ है |

Bahut achche.

Vinay said...

बहुत ख़ूब

---
आप भारत का गौरव तिरंगा गणतंत्र दिवस के अवसर पर अपने ब्लॉग पर लगाना अवश्य पसंद करेगे, जाने कैसे?
तकनीक दृष्टा/Tech Prevue

PREETI BARTHWAL said...

बहुत ही खूबसूरत रचना है बधाई

Anonymous said...

शिशिर बसंत हेमंत शरद , ऋतू सब ही आनी जानी |
अर्ध वस्त्र और भोजन आधा, जीवन की है यही कहानी |

रज़िया "राज़" said...

Bahut Dard hota hai ye sab dekhkar,Pradsipji ham to Ek sarkari HOSPITAL mai kam karte hai, harroz in logon ko dekhkar hame lagta hai ki mano hamari umra bhi 10 sal kam ho rahi hai in oldage walon ki pareshani dekhkar.
Dil ko ruladenewali karun Rachna.

Anonymous said...

मन को झकझोरती कविता।

रंजना said...

मार्मिक प्रवाहमयी, भावुक कर देने वाली इस सुन्दर प्रभावशाली रचना के लिए आपका बहुत बहुत आभार...
जितने सुन्दर भाव हैं रचना के उतना ही उत्कृष्ट शिल्प भी है....
मन को छू गयी रचना....