खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
ज़ीस्त मेरी थी जिनके सहारे अब ये सहारे टूट गये /
तेरे दम पर हमने फानूश तिरंगे मंगवाये /
तेरे सहारे ही ये हमने सुविधा के सामान जुटाये /
हुई खता आखिर क्या मेरी जो तुम ऐसे रूठ गये /
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
तेरे इश्क में दीवाने हम रांझा से आगे निकले /
तुझको पाने की चाहत में पत्थर हैं वो भी पिघले /
स्याह अंधेरा हमें डराता तुम जो ऐसे रूठ गये /
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
याद हमें है आज वो लम्हा जब आये थे पहली बार /
जर्रा जर्रा हुआ था रोशन आमद से मेरा घर द्वार /
सपनों की सी बातें लगती आप जो पहलू से हैं गये /
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
तेरे बिना बैचेनी रहती नींद नहीं आ पाती है /
तेरा साथ है सबब है चैन का ज़ीस्त हंसी हो जाती है /
ऐसी भी ये क्या रूसबाई वादे तेरे झूठ हुये /
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
बहुत हुई ये ऑंख मिचौली अब कुछ दिन तो रूक जाओ /
बने सियासी कठपुतली हो लेकिन अब ना तरसाओ /
बडे शहर तो हो चमकाते कस्बों से क्यों रूठ गये /
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
नफा सियासी देने को तुम राजा के माशूक बने /
हम भी आशिक परले तेरे बिल पूरा हर माह भरें
मान भी जाओ बिजली देवी बिन तेरे न काम चले /
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
=== प्रदीप मानोरिया
094 251 32060
24 comments:
मान भी जाओ बिजली देवी बिन तेरे न काम चले!
Very funny!
इस मामले मे तो कम से कम फ़िलहाल छत्तीसगढ के आशिक खुशनसीब हैं।बढिया लिखा आपने।
तेरे इश्क में दीवाने हम रांझा से आगे निकले /
तुझको पाने की चाहत में पत्थर हैं वो भी पिघले /
स्याह अंधेरा हमें डराता तुम जो ऐसे रूठ गये /
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
"bhut acchee rachna bn pdee hai..... bhut sunder bhav ko smety , dil kee tammanaon ko jujbatee rang daite...bhut sunder"
Regards
बहूत बेहतरीन और उम्दा रचना
अच्छा लिखा है आपने-
तेरे इश्क में दीवाने हम रांझा से आगे निकले /
तुझको पाने की चाहत में पत्थर हैं वो भी पिघले /
तेरे इश्क में दीवाने हम रांझा से आगे निकले /
तुझको पाने की चाहत में पत्थर हैं वो भी पिघले /
सुंदर लिखा
मेरे ब्लॉग पर भी आयें
सुधार की गुंजाईश हो तो बताएं
नफा सियासी देने को तुम राजा के माशूक बने /
हम भी आशिक परले तेरे बिल पूरा हर माह भरें
मान भी जाओ बिजली देवी बिन तेरे न काम चले /
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
bahut accha sir
आह हो!! बिजली देवी उपासना!!
-बहुत खूब!!
नफा सियासी देने को तुम राजा के माशूक बने /
हम भी आशिक परले तेरे बिल पूरा हर माह भरें
मान भी जाओ बिजली देवी बिन तेरे न काम चले /
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
सर आप क्यों हम से रूठ गये, उत्तरी भारत वाले मराठियों से पूछ रहे हैं
बडे शहर तो हो चमकाते कस्बों से क्यों रूठ गये /
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
bahut khoob......
वाह क्या बात है? पर बिजली तो जरूरी चीज है माशूक से बहुत ज्यादा।
भाई बिजली देवी को प्राणाम ,तेरे इश्क में दीवाने हम रांझा से आगे निकले /तभी तो.... कवि बन गये, अगर राझां तक रहते तो अभी भी हीर की भेसे ही चराते, ओर हीर बरतन भी मजवाती.
धन्यवाद इस सुंदर कविता के लिये
प्रदीप जी,
बहुत ही बढिया रचना बनी है.
बिज़ली के सारे लटके झटके आये है.
मुकेश कुमार तिवारी
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
ज़ीस्त मेरी थी जिनके सहारे अब ये सहारे टूट गये /
क्या बात है .बहुत खूब ,हमेशा की तरह इस बार भी आप ने बाग़ बाग़ कर दिया .
bahut bahut sundar likha hai....lajawaab rachna hai.
भाई प्रदीप जी,
आपकी प्रस्तुति निराली है , जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है.निम्न पंक्तियाँ बेहद पसंद आयी...........
नफा सियासी देने को तुम राजा के माशूक बने /
हम भी आशिक परले तेरे बिल पूरा हर माह भरें
मान भी जाओ बिजली देवी बिन तेरे न काम चले /
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
चन्द्र मोहन गुप्त
बहुत अच्छा िलखा है आपने । किवता में भाव की बहुत संुदर अिभव्यिक्त है ।
http://www.ashokvichar.blogspot.com
बधाई इस खूबसूरत कविता के लिये शुभकामनाएं
तेरे दम पर हमने फानूश तिरंगे मंगवाये /
तेरे सहारे ही ये हमने सुविधा के सामान जुटाये /
हुई खता आखिर क्या मेरी जो तुम ऐसे रूठ गये /
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
bahot badhiya, dhnyabad
हमेशा की तरह अच्छी सुंदर रचना . बधाई मनोरिया जी.
Bahut achche. Likhte rahiye.
guptasandhya.blogspot.com
बहुत दूर की कौड़ी लाये प्रदीप जी इस बार. कितनों के अंदाज बेचारे टूट गए. स्वागत मेरे ब्लॉग पर भी.
प्रिय मनोरियाजी /बहुत दिन बाद आपको पढ़ पा रहा हूँ कारण यह है कि मैं इन्दोर आया हुआ हूँ और यहाँ पर मेरे पास इन्टरनेट की सुबिधा उपलब्ध नहीं है आज किराए के इन्टरनेट पर आया दो किलोमीटर चलकर /दिनांक ५ नबम्वर के हिंदुस्तान समाचार पत्र जो दिल्ली से प्रकाशित होता है उसमें आपके ब्लॉग का जिक्र पढ़ा तभी से आपसे संपर्क की इच्छा थी किंतु एक तो डायरी गुना भूल आया जिसमे आपका नम्बर लिखा हुआ था /आज सोचा था कि आपको पढेंगे किंतु आपने थी तो ५ तारीख़ के बाद कुछ लिखा ही नहीं है / ५ तारीख़ का हिन्दुस्तान समाचार पात्र जरूर पढ़ना
बहुत ही सुंदर रचना बनी है,शुभकामनाये
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