Tuesday 29 March, 2011


2 comments:

BrijmohanShrivastava said...

सही है रे भैया ये धन ये यौवन ये जीवन सब अनित्य है । लेकिन इतनी दार्शनिक दृष्टि कहां से लायें कि वियोग होने पर भी
दुखी न हो।

प्रदीप मानोरिया said...

यह दृष्टि अपनी आत्मा के आश्रय से उसको ही सर्वस्व स्वीकारने से अवश्य प्रगट होती है ।